किताबें झांकती हैं बंद आलमारी के शीशों से,
बड़ी हसरत से तकती हैं ,
महीनों अब मुलाक़ात नही होती,
जो शामें इनकी सोहबत में कटा करती थी,
अब अकसर गुज़र जाती हैं कम्प्यूटर के परदों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें ।
ज़बान पर जायका आता था जो इन्हें पलटने का,
अब ऊँगली क्लिक करने से बस ,
इक झपकी गुज़रती है ,
बुहत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर ,
किताबों से जो जाती राब्ता था कट गया है।
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे ,
कभी गोदी में रखते थे ,
कभी घुटनों को अपने रहल कि सूरत बना कर,
नीम सज़दे में पढा करते थे, छूटे जभी से ,
खुदा ने चाहा तो वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी ।
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल,
किताबें मांगने,गिराने,उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे,
उनका क्या होगा ,
वो शायद अब नही होंगे!
[गुलज़ार साहब कि एक कविता का अंश ]
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