मेरे गाँव में एक पेड़ था बरगद का । 25-30 फीट लंबा और कुछ २० फीट के घेरे में फैला हुआ । हरे पत्ते और उसके ऊपर छोटे -छोटे लाल फल । उसके घने पत्तों के बीच से जब सूरज दीखता था तो ऐसा लगता था की किसी कलाकार ने रंगों का झुरमुट बनाया हो ।
लोग कहते थे की वो पेड़ इस गाँव की उमर बताता है । उस पेड़ के चारों ओर एक चबूतरा बनवाया गया था और उसके ऊपर लिखा था .. "श्री ना. प्रसाद के सौजन्य से ..."
एक बुढे काका थे। उन्हें हम सभी साधू कहते थे। वो रोज़ सुबह सुबह सूर्य निकलने के पहले उस चबूतरे को पानी से धोया करते थे। लोग कहते हैं की बारिश के दिन में भी साधू उसे धोते थे ताकि कोई गन्दगी ना दिखे।
सामने एक प्राईमरी स्कूल था। सर्दियों में जब मास्टर जी को धुप सेकना होता था तो एक बच्चा कुर्सी उस पेड़ के नीचे रख देता और फिर बच्चे नीचे घास पे बैठ के एक साथ पहाडा सुनाते । जैसे छुट्टी की घंटी बजती.. बच्चे भाग कर पेड़ के नीचे जाते और कुछ उससे लटकती लम्बी दाढी को पकड़ कर टार्ज़न बनने की कोशिश करते तो कुछ उसे झूला बना कर झूलते। बुढे बरगद भी उन खेलते बच्चों को देख कर खुश होते और अपने पत्तों को हिलाने लगते। हम सारे भाई जब कभी गाँव में इकठ्ठा होते तो शाम को उस बरगद के चबूतरे पे चौक से विकेट बनाते और फ़िर शुरू होता हमारा क्रिकेट ..
जेठ की दोपहरी में कोई राही उधर से गुजरता होता तो उस पेड़ के पास वाले कुँए से पानी पीता और फ़िर अपने अन्गोचे को उस चबूतरे पर बिछा कर आराम कर लेता। उसकी ठंडक शायद उसकी सारी थकान मिटा देती।
शाम होते ही साधू दो लालटेन जला कर बरगद के दो कोने पे लटका देते। हुक्का सुलगाया जाता। फ़िर एक कुर्सी और दो-तीन खाट लगाया जाता था। हर रोज़ वहां पंचायत लगती थी।पंच उस खाट पे बैठते और बाकी लोग सामने की घास पे।उस बुढे बरगद की देख रेख में ना जाने कितने लोगों का इन्साफ होता था, ना जाने कितने घरों के झगडे सुलझाए जाते थे और ना जाने कितने जमीनों का बटवारा होता था। हुक्का गुडगुडाते हुए सरपंच जी लोगों को अच्छा इंसान बनने की बातें बताते थे। वहां लगी कुर्सी हमारे डॉक्टर बाबा के लिए होती थी। जब पंचायत ख़तम होती थी तो डॉक्टर बाबा सबको आजादी के समय की बातें बताते। (डॉक्टर बाबा स्वतंत्रता सेनानी थे। लोग कहते हैं की आज़ादी के समय वो गांधीजी के साथ रहते थे और लोगों का मुफ्त इलाज़ करते थे )
उस शाम पंचायत नही लगी। दोपहर से ही मौसम का मिजाज़ अच्छा नही लग रहा था। रात को बहुत तेज़ आंधी और तूफ़ान आया। दादी ने कहा हर साल बारिश के दिनों में एक न एक बार ऐसा तेज़ तूफ़ान जरूर आता है।
सुबह उठा तो देखा सामने रोड पे काफ़ी भीड़ लगी थी। दादी ने बताया की रात तेज़ तूफ़ान में वो बरगद का बुढा पेड़ गिर गया । वो रास्ता भी बंद हो गया था। दादी बोल रही थी की उस बरगद ने ना जाने कितने आंधी तूफ़ान और बाढ़ देखा पर आज वो अपनी उम्र से हार गया।
शाम को जब हम वहां गए तो देखा लोगों ने टूटे पेड़ को वहां से हटा दिया था । साधू टूटी हुई लकडियों को इकठ्ठा कर रहे थे। चारों तरफ़ चबूतरे का टूटा ईट बिखरा था। एक कोने में कुछ जुड़ी हुई ईट राखी थी। उसपे लिखा था "स्वर्गीय श्री ना. प्रसाद के सौजन्य से ..."
कुछ महीनों बाद जब मैं गाँव गया तो पता चला की बरगद की लकडियों से स्कूल में नया बेंच बना है , सामने के मन्दिर में लल्ला जी का नया झूला बना है और जहाँ वो बरगद था उसके पास 4-5 दुकानें बन आई हैं । गाँव वालों ने उस चौक का नाम रखा है "नागेन्द्र चौक "...
अब पंचायत मन्दिर के सामने लगती है पर कोई सरपंच नही है । साधू बीमार हैं और आजकल घर पे ही रहते हैं। डॉक्टर बाबा का स्वर्गवास हो गया और उनके छोटे बेटे ने नया दवाखाना खोला है।
स्कूल को अब उच्च विद्यालय बना दिया गया है। बच्चे स्कूल के मैदान में क्रिकेट और हॉकी खेलते हैं.
बहुत कुछ बदल गया है गाँव में। शायद अब लोग उस बरगद को याद भी नही करते । कभी बात चलती है तो लोग कहते हैं, हाँ एक बड़ा बरगद था उस चौक पे।
मेरे गाँव में एक पेड़ था बरगद का, शायद इतिहास था वो मेरे गाँव का .....
शायद पहचान था वो मेरे गाँव का..
Wow !! I will publish your corpus.
ReplyDeleteBahut sahi!!!
ReplyDeleteIs it real story? ..... Or it just your envision? but really nice.. :)
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